बिन परीक्षा आसान नहीं मूल्यांकन कार्य, अंक देखने के बजाय योग्यता का आकलन

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पहले 10वीं और अब सीबीएसई की 12वीं की परीक्षाओं को भी रद कर दिया गया है। हालांकि घातक संक्रमण से बच्चों को बचाने के लिए सरकार का यह निर्णय बिल्कुल सही है लेकिन इससे आगे के तमाम सवालों के जवाब तलाशने में बहुत मुश्किलें आ सकती हैं।

डॉ. संजय वर्मा। CBSE Class 12 Board Exams 2021 परीक्षा किसी पहेली से कम नहीं है। वे कराए जाएं तो मुश्किल, नहीं कराए जाएं तो और भी ज्यादा मुश्किल। सीबीएसई ने 12वीं की परीक्षाएं रद कर दी हैं। इससे पहले 10वीं की परीक्षा भी कोरोना की मुसीबतों के कारण रद की जा चुकी है। सीबीएसई की अगुवाई में शेष शिक्षा बोर्डों ने भी अपनी परीक्षाएं रद करने का फैसला किया है। ऐसे फैसले मौजूदा माहौल में राहत देते प्रतीत होते हैं। लेकिन जैसे ही परीक्षाओं के बिना छात्रों को अगली कक्षाओं में पहुंचाने के विकल्प खोजे जाते हैं, तो आगे-पीछे की परीक्षाएं उनका आधार बन जाते हैं।

विश्वविद्यालय इसकी तैयारी में हैं कि दाखिले से पहले या तो आने वाले छात्रों के पिछले अंक देखे जाएं या फिर उन्हें किसी प्रवेश परीक्षा में बैठने को कहा जाए। यानी प्रतिभा-योग्यता के मूल्यांकन की अंतिम कसौटी अभी भी परीक्षा ही है। परीक्षा के बिना भी छात्रों की योग्यता की परख हो सकती है, ऐसा समाधान अभी के दौर में सोच-विचार के दायरे से बाहर है। कोई नहीं जानता कि कोरोना का संकट कब खत्म होगा। इसलिए बिना परीक्षा 10वीं-12वीं के छात्रों के परिणाम उनके आंतरिक मूल्यांकन (इंटरनल असेसमेंट) और प्रायोगिक (प्रैक्टिकल) परीक्षाओं के आधार पर घोषित करने का सिस्टम बनाने की कोशिशें चल रही हैं। इसके लिए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने जो नई परीक्षा नीति बनाई है, उसमें अध्यापकों और प्रधानाध्यापकों को शामिल करते हुए एक रिजल्ट कमेटी बनाने की बात कही गई है। अध्यापकों को कमेटी में शामिल करने के कई नियम-कायदे हैं।

दावा यह भी है कि 10वीं की तरह 12वीं के रिजल्ट को तैयार करने के लिए गृह कार्य (होम असाइनमेंट) और मूल्यांकन के अन्य स्मार्ट तरीकों को भी अपनाया जा सकता है। अभी तक की चर्चाओं में मेहनती छात्रों और उनके अभिभावकों की ओर से कई चिंताएं भी जताई गई हैं। मुमकिन है कि ऐसा परिणाम खुद छात्रों को संतुष्ट करने वाला न हो। ऐसी स्थिति में छात्रों को यह विकल्प देने की बात है कि कोरोना की मार कम या खत्म होने की सूरत में वे आफलाइन यानी स्कूल में जाकर परीक्षा दे सकते हैं। फिर भी कई चुनौतियां हैं जो बिना परीक्षा लिए घोषित होने वाले रिजल्ट की राह में अड़चन बनी हुई हैं।

सिर पर खड़ी चुनौतियां : पहली चुनौती यह है कि अगर 12वीं का नतीजा 11वीं की परीक्षा, यूनिट टेस्ट, इंटरनल असेसमेंट, प्रायोगिक, प्रोजेक्ट व प्री-बोर्ड परीक्षा आदि जितने भी विकल्पों को जोड़-घटाकर उनमें छात्रों को हासिल हुए अंकों और संयोजन के आधार पर घोषित किया गया, तो वह कम ही छात्रों-अभिभावकों को संतुष्ट कर पाएगा। वजह यह है कि अंतिम बोर्ड परीक्षा में अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की तैयारी में लगे हुए छात्र भी साल भर चलने वाली अन्य परीक्षाओं को गंभीरता से कम ही लेते हैं। ऐसे में उनमें प्राप्त अंक प्रदर्शन की संतोषजनक कसौटी नहीं हो सकते।

प्रोफेशनल कोर्सों और विश्वविद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों में वर्षों से दाखिले के लिए कटआफ लिस्ट के रूप में बनी अंकों की कसौटी पर ऐसे नतीजे बहुतों को निराश कर सकते हैं। यही नहीं, 12वीं के नतीजे स्नातक कक्षाओं में दाखिले की मौजूदा प्रक्रिया में क्रांतिकारी बदलाव की जरूरत पैदा करते हैं। ऐसा नहीं करने की दशा में शायद ही कोई छात्र ऐसा होगा, जो इन नतीजों को अन्यायकारी ठहरा सकता है। बहुत मुमकिन है कि इसके लिए कोर्ट-कचहरी तक की नौबत आ जाए। कह सकते हैं कि 10वीं के मुकाबले 12वीं की परीक्षाओं को रद करना और इसके परिणाम घोषित करने की प्रक्रिया हमारे शिक्षा तंत्र के लिए एक बड़ा सिरदर्द साबित होने वाली है। ऐसे में छात्रों के भविष्य पर भी सीधा असर डालने वाले इस बदलाव के साथ अब यह मौका इस विमर्श का बन गया है कि हमें साल में कुछ ही घंटों में आयोजित होने वाली अर्धर्वािषक या र्वािषक या बोर्ड परीक्षाओं का क्या करना है। कोरोना संकट तो निश्चय ही वायरस की चाल को कुंद करने वाले प्रयासों के साथ खत्म हो जाएगा, लेकिन परीक्षा की मौजूदा व्यवस्था पर कई सवाल छोड़ जाएगा। ये सवाल ऐसे हैं जिन पर देश-दुनिया में गाहे-बगाहे चर्चा तो चलती रही है, लेकिन उन पर गंभीर विचार-मंथन कम ही हुआ है।

परीक्षा का इतिहास : योग्यता-मापन और सत्य की परख के लिए परीक्षाएं सदियों से होती आई हैं। सतयुग में भगवान राम ने सीता माता की अग्नि परीक्षा सामाजिक कारण से ली थी, तो तमाम राजसत्ताओं में योग्य अधिकारियों, सेनापतियों आदि का चयन उनके शास्त्र और शस्त्रज्ञान के आधार पर होता था। अध्ययनकाल में भी वेद-पुराण आदि के ज्ञान की जांच व्यावहारिक कौशल और शास्त्रार्थ आदि के जरिए होता था। इतिहासकार दावा करते हैं कि मेधा की परख करने के लिए परीक्षा के आयोजन का व्यवस्थित सिलसिला सातवीं सदी में चीन से शुरू हुआ था। शाही सेवाओं के अधिकारी परीक्षाओं के जरिए ही चुने जाते थे, हालांकि परीक्षाओं के आयोजन से पहले ऐसी र्भितयां सिफारिश से कर ली जाती थीं। जाहिर है कि अफसरों के रिश्तेदार ही राजकाज के कार्यों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी न जुड़ें, आम जनता के बीच से भी प्रतिभाशाली व्यक्ति राजशाही की सेवाओं में आ सकें, परीक्षाएं इसका जरिया बनीं। लेकिन रट्टा लगाकर परीक्षाएं उत्तीर्ण करने का यह तरीका सिर्फ चीन तक सीमित नहीं रहा। बल्कि पहले यह यूरोप पहुंचा और फिर ब्रिटेन के उपनिवेश बने भारत सरीखे दुनिया के कई देशों में।

आज भी अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि की शिक्षा प्रणाली में परीक्षाओं का काफी महत्व है। चीन में तो हर साल महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में दाखिले के बेहद कठिन प्रतियोगी परीक्षा आयोजित होती है, दावा है कि इसमें हर साल एक करोड़ से ज्यादा छात्र हिस्सा लेते हैं। इस परीक्षा में मिले अंक, रैंकिंग या मेरिट से यह तय होता है कि छात्र को किसी नामी-प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला मिलेगा या मामूली कॉलेज में। भले ही कठिन प्रतियोगी परीक्षा किसी छात्र की समझ और योग्यता की जांच का पैमाना बनी हुई है, लेकिन इस दुनिया में ऐसे कामयाब लोगों की लंबी सूची है जिन्होंने या तो कोई ऊंची डिग्री हासिल नहीं की या पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। यानी जिंदगी में ऊंचा मुकाम हासिल करने का जो ख्वाब है, उसमें यह हमेशा जरूरी नहीं है कि किसी नामी परीक्षा को पास कर लेने का ज्यादा बड़ा या उल्लेखनीय योगदान होता है। इसके बावजूद हमारी शिक्षा प्रणाली का स्वरूप आजादी से पहले और बाद में ऐसा ही बना हुआ है कि तीन घंटे की परीक्षा में मिले अच्छे अंक शानदार नौकरी और अच्छे जीवन की गारंटी हैं। यह भी गौरतलब है कि ऐसी ज्यादातर परीक्षाएं रट्टा मारकर और कुछ स्किल अपनाकर (जिसकी ट्रेनिंग कई कोचिंग संस्थान धड़ल्ले से देते हैं) कोई भी छात्र अच्छे अंकों से पास कर सकता है।

निहितार्थ यह है कि ऐसी परीक्षाओं को छात्र के वास्तविक ज्ञान और दुनियावी समझ से ज्यादा लेना-देना नहीं होता। कुछेक अपवादों को छोड़कर कोई स्कूल-कॉलेज परीक्षा लेने की बजाय यह नहीं सिखाता कि जिंदगी में सामने आने वाली वास्तविक चुनौतियों से कैसे निपटा जाए, टीम बनाकर कैसे काम किया जाए, जिम्मेदार नागरिक कैसे बना जाए और अपनी गलतियों से सबक लेकर कौशल कैसे सुधारा जाए। परीक्षा लेकर पास करने वाली इस शिक्षा व्यवस्था का एक खामियाजा इस रूप में दिखाई देता है कि जिले के सबसे आला अफसर किसी शादी में सारे इंतजाम सही होने पर भी लोगों पर थप्पड़ बरसाते नजर आते हैं और लाकडाउन के बीच दवा खरीदने जैसे जरूरी काम से बाहर निकलने वाले को थप्पड़ मारने के साथ उसका मोबाइल फोन भी तोड़ देते हैं। ऐसा नहीं है कि पूरी दुनिया सिर्फ कागज-कलम से ली जाने वाली परीक्षा के कायदों पर ही टिकी है। गूगल जैसी शीर्ष इंटरनेट कंपनी के बारे में दावा है कि वहां करीब 15 फीसद नौकरियां ऐसे लोगों को दी जाती हैं, जो स्नातक नहीं होते, लेकिन अपने काम का हुनर बखूबी जानते हैं। लेकिन यहां मौलिक सवाल है कि 10वीं, 12वीं या इससे आगे की प्रतियोगी परीक्षाओं का क्या किया जाए और प्रतिभा का मूल्यांकन आखिर कैसे हो।

अंक देखने के बजाय योग्यता का आकलन: इस तथ्य पर अब ज्यादा बहस की गुंजाइश नहीं बची है कि हमारे देश में 10वीं-12वीं की परीक्षाओं में अंकों की गलाकाट होड़ किशोरों-युवाओं की आत्महत्याओं और अवसाद की तमाम घटनाओं के पीछे मौजूद रही है। पर दुनिया के कई नामी शिक्षण संस्थाओं के ऐसे भी कई उदाहरण हैं जहां योग्यता की जांच परख जबानी सवाल-जवाब, प्रायोगिक परीक्षाओं (प्रैक्टिकल) और प्रोजेक्ट से की जाती है। इसके लिए तीन घंटे की पर्चे वाली परीक्षा से वहां परहेज बरता जाता है। ऐसे शिक्षण संस्थानों की मान्यता है कि सीखने की क्षमता और चुनौतियों से जूझने की समझ व योग्यता का आकलन साल भर की जाने वाली गतिविधियों से हो सकता है। हमारे देश में भी कई ऐसे कॉलेज हैं, जहां साल के आखिर या सेमेस्टर के अंत में होने वाली लिखित सत्रांत परीक्षा में सबसे कम प्रतिशत वाले अंकों के पर्चे रखे जाते हैं।

करीब 75-85 अंकों का आकलन एक सत्र के बीच में दिए जाने असाइनमेंट और प्रोजेक्ट- प्रायोगिक परीक्षाओं से किया जाता है। आखिर क्यों नहीं, यही व्यवस्था 10वीं-12वीं की कक्षाओं में योग्यता के आकलन के संबंध में की जाती है। इसकी वजह शायद यह है कि कॉलेजों-विश्वविद्यालयों को सीबीएसई और विभिन्न शिक्षा बोर्डों में दी जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता पर यकीन नहीं होना है। यह इसलिए हुआ है कि राज्य शिक्षा बोर्ड ढेरों खामियों के चलते इस मामले में विश्वसनीयता नहीं कायम कर पाए हैं, वहीं सीबीएसई और अन्य बोर्डों के अध्यापन की प्रक्रियाओं में एकरूपता नहीं है। अब काम इस मोर्चे पर करने की जरूरत है। यानी राज्य शिक्षा बोर्ड अध्यापक चयन से लेकर शैक्षणिक माहौल बनाने और शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का काम करें। साथ ही, अन्य शिक्षा बोर्ड सीबीएसई के साथ मिलकर पूरे साल होने वाले मूल्यांकन (असेसमेंट) की फूलप्रूफ कसौटियां तैयार करें। कॉलेज-विश्वविद्यालयों को भी दाखिले की कट-ऑफ का आधार 12वीं की बोर्ड परीक्षा के अंकों की बजाय छात्र की मौलिकता और रचनात्मकता को बनाना चाहिए। यदि ऐसा हो सका तो शैक्षणिक वर्ष के अंत में होने वाली बोर्ड परीक्षा का न सिर्फ हौव्वा खत्म हो जाएगा, बल्कि पर्चे पर ली जाने वाली और रट्टा मार कर नैया पार कराने वाली जड़ व्यवस्था का स्थायी समाधान भी निकल सकेगा।

महामारी के कारण शिक्षा व्यवस्था की स्थिति भी पूरी तरह बदल गई है। पहले 10वीं और अब सीबीएसई की 12वीं की परीक्षाओं को भी रद कर दिया गया है। हालांकि घातक संक्रमण से बच्चों को बचाने के लिए परीक्षा को रद करने का सरकार का यह निर्णय बिल्कुल सही है, लेकिन इससे आगे के तमाम सवालों के जवाब तलाशने में बहुत मुश्किलें आ सकती हैं। छात्रों के मूल्यांकन के अलावा ऐसे तमाम प्रश्न हैं जो उनके भविष्य निर्माण से संबंधित हैं और उनके उत्तर तलाशना आसान नहीं है।साभार-दैनिक जागरण

[असिस्टेंट प्रोफेसर, बेनेट यूनिर्विसटी, ग्रेटर नोएडा]

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